Akalank - Agyeya | अकलंक - अज्ञेय

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Akalank - Agyeya | अकलंक - अज्ञेय

वे दोनों उस टीले की चोटी पर खड़े थे। चारों ओर काले-काले बादल घिरे हुए थे, धारासार वर्षा हो रही थी, टीले के नीचे घहराता हुआ ह्वांग-हो नदी का प्रवाह था, और जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पानी-ही-पानी नजर आता था।

वे दोनों वर्षा की तनिक भी परवाह न करते हुए टीले के शिखर पर खड़े थे।

वह चीनी प्रजातन्त्र सेना की वर्दी पहने हुए था, और भीगता हुआ सावधान मुद्रा में खड़ा था।

स्त्री ने एक बड़ी-सी खाकी बरसाती में अपना शरीर लपेट रखा था। उसके वस्त्राभूषण कुछ भी नहीं दीख पड़ते थे। उसने वेदना-भरे स्वर में कहा, ‘‘मार्टिन, तुम्हें भी अपना घर डुबा देना होगा। मेंड़ काट देना, नदी स्वयं भर आएगी।’’

मार्टिन कुछ देर चुप रहा। फिर बोला, ‘‘क्रिस, क्या इसके अतिरिक्तकोई उपाय नहीं है?’’

स्त्री ने चौंककर कहा, ‘‘मार्टिन, यह क्या? सेनापति की जो आज्ञा है, उसका उल्लंघन करोगे?’’

‘‘उल्लंघन नहीं। लेकिन अगर बिना शत्रु को आश्रय दिये ही घर बच जाए, तो क्यों न बचा लिया जाए!’’

‘‘औरों के भी तो घर थे?’’

‘‘वे किसान थे। मैं राष्ट्र का सैनिक हूँ। शायद अपने घर की शत्रु से रक्षा कर सकूँ।’’

‘‘मार्टिन, तुम्हें क्या हो गया है? तुम अकेले क्या करोगे? हम सब यहाँ से चले जाएँगे। शत्रु के लिए इतना विशाल भवन छोड़ दोगे, तो हमारे बलिदान का क्या लाभ होगा? हमने अपने घर डुबा दिये हैं, केवल इसीलिए कि शत्रु को आश्रय न मिले। और तुम अपना घर रह जाने दोगे?’’

‘‘मेरा घर इतना विशाल है कि उसमें समूचा गाँव आकर रह सकता है।’’

‘‘इसीलिए तो उसे डुबाना अधिक आवश्यक है। मार्टिन, सम्पत्ति का इतना मोह!’’

मार्टिन को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे थप्पड़ मार दिया हो। तन केवल अंगहीन ही नहीं है मानो अशरीरी है, केवल एक दीप्त-अंगों से क्या? अवयवों से क्या? ‘‘जाना गेलो, ऐटा छाड़ाओ चले’’-इस सबके बिना काम चल सकता है। केवल दीप्ति : केवल संकल्प-शक्ति। रोटी, कपड़ा, आसरा, हम चिल्लाते हैं, ये सब ज़रूरी है, नि:सन्देह जीवन के एक स्तर पर ये सब निहायत ज़रूरी है, लेकिन मानव-जीवन की मौलिक प्रतिज्ञा यह नहीं है; वह है केवल मानव का अदम्य, अटूट संकल्प...।

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