Shah Mohammad Ka Tanga - Ali Akbar Natiq | शाह मोहम्मद का तांगा - अली अकबर नातिक़

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Shah Mohammad Ka Tanga - Ali Akbar Natiq | शाह मोहम्मद का तांगा - अली अकबर नातिक़

मैं देर तक पुरानी दीवार से लगे तांगे के ढांचे को देखता रहा, जिसका एक भाग ज़मीन में धंस चुका था और दूसरा एक सूखे पेड़ के सहारे खड़ा था, जिसकी टुंडी डालियों पर बैठा कौआ कांव-कांव कर रहा था। कुछ राहगीर दुआ-सलाम के लिए रुके लेकिन मेरा ध्यान न पा कर आगे बढ़ गए। मुझे उस लकड़ी के पहिए और तांगे के ढांचे ने खींच कर तीस साल पहले पहुंचा दिया।

ले भई जवान। शाह मोहम्मद ने छांटे की लकड़ी तांगे के पहिए से टकराते हुए बात शुरू की। उन दिनों मैं मुंबई में था और जवानी मुझ पर फूटी पड़ती थी और ख़ून में जोश था। बस वह कार जापान से नई-नई बनकर हिंदुस्तान पहुंची थी कि मैंने ख़रीद ली। इस बात के बीच में उसने फिर छांटा घूमते हुए पहिए के साथ लगा दिया जिसकी रगड़ से गर्रर्र-गर्रर्र की आवाज़ पैदा हुई और घोड़ा और भी तेज़ हो गया और लगा मुंबई की सड़कों पर दौड़ने। मियां जवानी अंधा ख़ून होती है। टीले, गड्ढे नहीं देखती, रगों में शराब की तरह दौड़ती है, और मेरी कोई जवानी थी। गुलाबी रंग था, फिर गाड़ी का हाथ आ जाना क़यामत हो गया, सवार होकर सड़क पर आता तो लोग किनारे लग जाते। कहते भाई ओट लेलो, ओट, शाह मोहम्मद मौत पर सवार चला आता है। उन दिनों कार पर सवारी बिठाना शर्म की बात थी, इसलिए अकेला ही घूमता था। मुंबई की भीड़ तो आपको पता ही है, लेकिन मैंने कहा शाह मोहम्मद बात तब है, जब तू गाड़ी को भरी सड़कों पर हवा की तरह चलाए। फिर थोड़े ही दिनों में सर्कस वालों को पछाड़ने लगा।

तो क्या चाचा आप गाड़ी लेकर सर्कस में काम करने लगे थे? मैंने हैरानीआश्चर्य से पूछा।

ओ मेरे भतीजे! शाह मोहम्मद ने घोड़े को चाबुक मार कर और तेज़ कर दिया। सर्कस वाली बात तो मैं उदाहरण के तौर पर कह रहा हूं। मेरा उन मदारियों से क्या लेना-देना। वो बेचारे तो पेट भरने के लिए यह यह धंधा करते थे, रोज़ी-रोटी की फ़िक्र उन्हें मौत के रस्सों पर चलाती है। इधर तुझे पता नहीं, पर अल्लाह बख़्शे तेरा दादा मेरे बाप को जानता था। हम पुरखों से नवाब थे। लाखों ही रुपए इन हाथों से खेल-तमाशों में झोंक दिए। ख़ैर छोड़ो इन बातों को, बात जापानी कार की हो रही थी। मुंबई की सड़क पर दौड़ाते-दौड़ाते पूरा एस्पर्ट (माहिर) हो गया और हद यह हुई कि चलते हुए बड़े ट्रालरों के नीचे से निकल जाता। ऐसे चलते ट्रालर के नीचे से छपाक से निकल जाता जैसे भूत उड़ जाए। मुंबई में मेरी मिसाल दी जाती थी।

अब मेरे कान खड़े हुए। मैंने बड़ी हैरानी से पूछा, वह कैसे चाचा शाह मोहम्मद?

हाहाहाहाहा, शाह मोहम्मद ने मूंछों पर हाथ फेर कर घोड़े को बराबर थपकी दी और बोला, जवान ये बात तेरी समझ में नहीं आ सकती। बस तू चुप करके सुनता जा। एक दिन अजीब क़िस्सा हुआ। मैं कार में जा रहा था, कुदरत ख़ुदा की देखो, वह अकेला दिन था जब मेरी रफ़्तार हल्की थी। क्या देखता हूं कि सड़क के किनारे एक आदमी निढ़ाल और बुरे हाल में ज़ख़्मी भागा जा रहा है। ऐसा लगता था कि अभी गिरा, अभी गिरा। उसके पीछे पुलिस हूटर मारती चढ़ी आ रही थी। मैंने सोचा बेचारा मारा जाएगा, कुछ दया करदें, उसी समय मैंने कार उसके पास ले जाकर खड़ी की और कहा कि भई जल्दी बैठ जा। लो भई इधर वह कार मैं बैठा और उधर मैंने रेस दबा दी। घोड़े को एक और चाबुक। अब पीछे पुलिस और उसके हूटर और आगे मैं। वह बंदा बहुत घबराया कि अब पकड़े जाएंगे। अब उस भड़भूसिए को कौन बताए कि वह किसके साथ बैठा है। फिर वह मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराया, मैं तो जानता था, बेचारी मुंबई की पुलिस की क्या औक़ात है, सौ साल ट्रेनिंग ले फिर भी मेरी हवा को न पहुंचे। टके-टके के सिपाही, रोज़ी-रोटी की मुसीबतों में फंसे, मुक़ाबला करने के लिए थोड़े ही भर्ती होते हैं। बेचारों ने रोटी-रोज़ी का फंदा लगाया होता है, हमारा क्या मुक़ाबला करेंगे। अब मुंबई की सड़कें थीं। हमारी कार थी और पुलिस की दस गाड़ियां।

मैंने चलते हुए पूछा भाई क्या लफ़ड़ा करके भागे हो, कि इतने गुंडे पीछे लगा लिए। धीरज के साथ बोला, सेठ भीम दास खत्री की तिजोरी लूटी है, खत्री के चाक़ू भी लग गया है, अब बुरा फंस गया हूं, पकड़ा गया तो सीधा फांसी घाट उड़ान होगी। मेरे तो होश की ऐसी-तैसी फिर गई। ओ तेरे मुर्दों की ख़ैर। भीम दास खत्री करोड़ों का मालिक, पूरी मुंबई में उसी के उधार-सूदी का सिक्का चलता था। उसकी तिजोरी लूटने का मतलब था रातोरात सेठ बन जाना। मैंने पूछा, मगर तुम तो ख़ाली हाथ हो। बोला, अभी चंद्राखेम के पुल के नीचे फेंक आया हूं। बस एक बार इन लफ़ंगों से पीछा छुड़ा लूं तो तुम्हें मालामाल कर दूंगा। ग़ुस्सा तो बहुत आया कि यह कौन होता है हम नवाबों को मालामाल करने वाला। मगर उसकी नासमझी देख कर ग़ुस्सा पी गया, लेकिन रेस पर पांव का दबाव और बढ़ गया। जिसके कारण कार अब चल नहीं बल्कि उड़ रही थी।

इतने में बकरियों का एक रेवड़ सड़क से गुज़रने लगा और शाह मोहम्मद को घोड़े की लगाम खींचनी पड़ी। उसके साथ उसकी दास्तान भी रुक गई। वह बदमज़गी से बोला, यार ये आयाली लोग भी खुदा जानता है ज़लज़ले की घड़ी पैदा होते हैं। जहां से गुज़रते हैं हर चीज़ का नास फेर देते हैं। सड़कें तो इन के बाप की होती हैं, जो अपने नाम लिखवा लेते हैं। देख, किस सुकून से कापा कांधे पर रखे अकड़ता जा रहा है, जैसे नादिर शाह का साला हो। आयाली को आवाज़ देते हुए, ओ भाई जल्दी कर, घोड़ा बिदकता है, भेड़ों को जल्दी हांक ले, उफ खुदावंदा कैसा शैतानी आंत का रेवड़ है? आयाली ने गोया शाह मोहम्मद की आवाज़ सुनी ही नहीं, उसी बुर्दबारी से सड़क के दरमियान चलता रहा। शाह मोहम्मद पर यह दौरानिया सदियों पर भारी हो गया मगर इंतज़ार के सिवा क्या कर सकता था? किस्सा सुनने की बेचैनी मुझे भी थी लेकिन मेरी तबीयत में ज़रा इत्मीनान था। खुदा-खुदा करके तांगे के गुज़रने का रास्ता बना तो शाह मोहम्मद ने शुक्र का कलमा पढ़ा और दोबारा घोड़े को चाबुक दिखाया। घोड़े ने चाल पकड़ी तो मैंने कहा, चाचा फिर आगे क्या हुआ?

यार इस आयाली ने बात का मज़ा ही हवा कर दिया। खैर, तो भाई मैं कह रहा था, मुझे उस दमड़ीगीर की बात पर बहुत ग़ुस्सा आया लेकिन यह समझ कर पी गया कि नासमझ है, जाने दो।गाड़ी, पता नहीं कितने मील की स्पीड पर थी, मीटर की सुई पर तो मैंने नज़र न की, अलबत्ता पहिए कभी ज़मीन पर लगते थे, कभी नहीं। ऐन उसी लम्हे हमारे सामने बहत्तर इंच के पहियों वाले दो ट्रक आ गए। एक दाएं से, एक बाएं से। अब क्या था, पीछे पुलिस, आगे दो ट्रक और सड़क तंग। मैंने कहा, ले भई शाह मोहम्मद, यही वक़्त है इज़्ज़त बचाने का, अब पराई मुसीबत सिर पर ली है तो उसे भुगत और खेल जा जान पर। लो जी, मैं ने फौरन ही फ़ैसला किया। उसे कहा, काका मज़बूत हो जा और फुर्ती से कार को एक ट्रक के नीचे से गुज़ार कर सड़क की दूसरी तरफ़ हो गया।

ट्रक के नीचे से, चलती ट्रक के नीचे से! उफ़ मेरे अल्लाह! मुझ पर जैसे हैरानी का दौरा पड़ गया। अगर कुचले जाते तो फिर?

हाहाहाहाहा, बेटा इसी का नाम तो होशियारी और कारीगरी है। शाह मोहम्मद ने सीना गर्व से फुलाते हुए कहा। इन कामों में पलक झपकने का हिसाब रखना पड़ता है। क्षण भर की ग़लती नहीं हुई कि बंदे का स्वर्गवास हो जाता है। चल आगे सुन, देखा तो आगे सड़क ही नहीं थी। लंबी और गहरी खाई थी। बीलिया। यहां भी मेरी हाज़िर दिमाग़ी काम आई। मैंने एक सेकेंड के हज़ारवें हिस्से में कार का हैंडल दूसरी ओर घुमा दिया। बस यह समझलो उस वक़्त मेरी फुर्ती सुलैमान पैग़ंबर के वज़ीर से भी ज़्यादा तेज़ थी जो आंख झपकने से पहले ही यमन से बिलक़ीस का तख़्त उठा लाया था। मेरी इस तेज़ी से यह हुआ कि कार दाईं ओर के दो पहियों पर आ गई। अब वह खाई से तो बच गई लेकिन स्कूटर की तरह दो पहियों पर ही दौड़ती गई। ठहाका लगाते हुए, भाई वहां तो अच्छा-ख़ासा तमाशा बन गया। मुंबई की भीड़ भाग कर सड़के के किनारे जमा हो गई। चाबुक हवा में लहरा कर घोड़े को तेज़ दौड़ाया। मैंने सोचा, हमारी तो जान पर बनी है और उन्हें देखने को खेल मिल गया।

अब गाड़ी की रफ़्तार इतनी थी कि बेचारे मीटर की सुई के बस से बाहर हो गई। अगर उसी समय चार पहियों पर करता तो पलट जाती, मैंने सोचा इसे इसी तरह जाने दो। वह भड़वा एक बार बोला, भाई इसे सीधी करलो नहीं तो मर जाएंगे। मैंने फ़ौरन डांट दिया, नालायक़ चुप रह, जिस काम का पता नहीं, बीच में नहीं बोलते। कार को तीन मील तक उसी तरह दो पहियों पर रखा और भूत की तरह निकल गया। जवान क्या दिन थे और एक दिन ये है कि अयाली रास्ते नहीं देते। शाह मोहम्मद की बात जारी थी कि गांव आ गया। वह मेरी ओर देखे बिना बोला। ले बई जवान बाक़ी क़िस्सा कल पर। मैं छलांग मार कर तांगे से नीचे उतर गया।

यह मेरा स्थानीय शहर था। मैं इस्लामिया हाई स्कूल में छठी घंटी बजते ही भागता हुआ गेट से बाहर निकल आता। यहां से पचास डेग पर वेनिस चौक था, वहां से होकर तांगे वाले अड्डे पर आ जाता और शाह मोहम्मद के तांगे की अगली सीट पर जम कर बैठ जाता। कई बार तो सवारियां कम होने के कारण मुझे काफ़ी देर तक अड्डे पर बैठना पड़ता। तांगों वाला अड्डा चार कनाल पर फैला हुआ था और सारा का सारा छतदार था। छत लकड़ी के शहतीरों और आंकड़ों पर सरकंडों की लकड़ी बिछा कर तैयार की गई थी। सिर से ज़रा ही ऊंची थी। यानी तांगे पर बैठा आदमी आसानी से हाथ उठाकर उसे छू सकता था। गरमियों में खंभे के साथ सूती बोरियां लटकाकर उनपर पानी छिड़क दिया जाता कि हवा ठंडी होकर घोड़ों को लगे और लू पैदा न हो। ऐसी हालत में यह एक बहुत ही शांत सराय मालूम होती थी जिसमें कभी घोड़ों के हिनहिनाने और कभी चिड़ियों के सरसराने की फुड़-फुड़ाने की सरसराहट आ जाती थी। जब वे घोंसले से निकल कर दूसरी शहतीर पर बैठतीं।

वहां तीन चार होटल भी थे। होटल मालिकों ने वीसीआर लगा रखे थे, जिनपर इंडियन, उर्दू और पाकिस्तानी पंजाबी फ़िल्में चलतीं। कोचवान फ़ुर्सत में यहीं पर तेज़ पत्ती की चाय पीते और एक रुपए टिकट के बदले फ़िल्में देखते। वैसे तो सफ़ाई का ध्यान रखा जाता लेकिन लीद की हल्की सी गंध उसमें ऐसी बसी थी कि साधारण इंसानों के नाक में लग जाती लेकिन कोचवानों, होटल वालों और पड़ोस के रहने वालों के लिए यह गंध सुकून देती थी। वह चाय या खाना खाने के साथ इस गंध को भी महसूस करते। इस प्रकार उन्हें दूसरी जगह चाय पीने में मज़ा नहीं आता। होटल आधे-अंधेरे में डूबे हुए, बेहदतंग और नीची छतों वाले थे। फ़र्श अड्डे से दो फ़ुट नीचे जा चुकी थी। उनकी दीवारों और छतों पर धुएं का पलस्तर इस तरह चढ़ा था कि वहां किसी किस्म की रोशनी कर दी जाए वह बुझी-बुझी महसूस होती थी।

मिट्टी के तेल से जलने वाले चूल्हों का धुआं हर दिन उस कालिख और अंधेरी में इजाफा कर रहा था। दीवारों पर हेमा मालिनी, नूर जहां, दिलीप कुमार और पता नहीं किन किन अदाकारों के फ़ोटो लगे थे, जिनके ऊपर ज़रा ऊंचाई पर क़ुरान की सूरतें, सूफ़ी संत अब्दुल क़ादिर जीलानी और दूसरे सूफ़ियों के पोस्टर भी लटके थे। इन सबको धुएं ने बिना किसी भेद-भाव के काला कर दिया था। होटल का मालिक उन्हें लगा कर भूल गया था और उसनेयह भी नहीं सोचा कि कम से कम मुसलमान पोस्टरों से कालिख हटा दे। सारे कोचवान पड़ोस के गांव-कस्बों से सवारियां लाकर छोड़ देते और तांगा भरने तक यहीं रहते। अड्डे पर बीस-पचीस तांगे हर समय खड़े रहते और घोड़े थान से बंधे खाने में मगन रहते। कुछ साईं की तरह के घोड़े सिर नीचा किए ध्यान में मगन रहते यहां तक कि कोचवान उन्हें दोबारा तांगे में जोत देते। थान के साथ 20 फ़ुट लंबा और तीन फ़ुट चौड़ा पानी का एक हौज़ भी था। जिस तरह कोचवान एक दूसरे से परिचित थे उसी तरह घोड़ों की भी एक दूसरे से पहचान थी। जब एक घोड़ा सवारियां लेकर निकलता तो साथ वाला कनौतियां उठाकर हलके से हिनहिनाता, जैसे विदा कर रहा हो।

शाह मोहम्मद हमारे गांव का था। मेरा उससे परिचय तब हुआ जब छठी कक्षा के लिए मेरा स्थानीय शहर के स्कूल में दाख़िला करवाया गया और उसी तांगे पर मेरा आना-जाना ठहर गया। स्कूल जाते और वहां से शाह मोहम्मद के साथ आते कई महीने बीत चुके थे। इसी दौरान उसने अपने जीवन की कई ऐसी घटनाएं सुनाईं जो हैरान कर देने वाली थीं। हर घटना किसी बड़े शहर में उसके साथ घटी थी। वह कब उन शहरों में फिरता रहा, इस बात को सब लोग नहीं जानते थे। पिछले 15 साल से तो वह इसी अड्डे पर तांगा चला रहा था। हां बातें इतने जादू से सुनाता कि बात पर भरोसा करना ही पड़ता था। शाह मोहम्मद बंबू के साथ लगी उस तख़्ती पर बैठता तो हर तांगे में उसी मकसदसे लगाई जाती है। सीट पर उसे कभी-कभार ही बैठना नसीब होता लेकिन उस वक़्त मुझे तेज़ ग़ुस्सा आता जब सवारियां ज़्यादा होने के कारण वो मुझे बच्चा समझकर हौदे में बिठा देता लेकिन जब थोड़ी ही देर में वह कहानी शुरू करता तो मुझे अपमान का एहसास नहीं रहता।

शहर में ये मेरा पहला साल था, जो दूसरे साल तक उसी खूबसूरती के साथ चलता रहा। इस दौरान मैंने स्कूल में बहुत कम नागा किया। ऐसा नहीं कि पढ़ाई का बहुत शौक़ था बल्कि शाह मोहम्मद की ज़ुबानी कहानी सुनने का ऐसा चस्का पड़ा कि मैं अगली सुबह का बेचैनी से इंतज़ार करता और घर वाले समझते कि मैं पढ़ाकू हो चुका हूं। यह किस्से किताबी नहीं थे बल्कि ऐसी आप-बीती थी जो विभिन्न शहरों और देशों की सैर के दौरान उस पर बीती थी। घटना का विवरण ऐसे करता कि मेरी आंखों के सामने वह मंज़र आ जाता। इस तरह मैं बचपन में ही शहर भर से परिचित हो गया और शाह मोहम्मद से जलता जो ऐसे-ऐसे करतब करके आज यहां तांगा चला रहा था।

मगर तीसरे साल मेरे पर निकल आए और मैंने ज़िद करके एक साइकिल ख़रीद ली। फिर मैट्रिक तक उसी साइकिल पर रहा, जिसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि शहर की गलियां नापता। ख़ासकर वसंत के दिनों में साइकिल पर सवार होकर सड़क के किनारे पेड़ों के साए में फिरना मुझे स्वर्ग की सैर के बराबर लगता। कंपनी बाग़, पहलवानों का बाग़, स्टेडियम, और नहर से लेकर हीरा मंडी की सैर तक, सबका क्रेडिट मेरी साइकल को ही जाता है। इसलिए अब मेरा कभी-कभार ही तांगे के अड्डे को जाना होता। एक बार घरवालोंने कहा कि खाट के लिए बान (रस्सी) लेते आना, सो बान ख़रीदने के लिए मुझे उसी तरफ़ आना पड़ा। एक बार अपने दादा के हुक़्क़े की चिलम भी यहीं से ख़रीदी थी। अगले साल मैट्रिक पास करते ही मैंने गांव को छोड़ दिया और शहर में ही दोस्तों के साथ रहने लगा। इस तरह तांगे के साथ वह रिश्ता भी ख़त्म हो गया जो गांव आते-जाते साइकिल की डोर तांगे से बांध लेता था। इस तरह अगले दो बरसों में एक या दो बार ही शाह मोहम्मद से आमना-सामना हुआ। नए दोस्तों की संगत में ये साल इतनी तेज़ी से निकल गए कि पता ही नहीं चला, यहां तक कि मैंने एफ़ए (इंटर) कर लिया और ग्रेजुएशन के लिए लाहौर चला आया।

अब दो महीने बाद घर जाता लेकिन इस सफ़र में शाह मोहम्मद के तांगे का कोई दख़ल नहीं था क्योंकि गांव संपर्क रोड से कोई तीन मील की दूरी पर था और उस सड़क पर बहुत सी बसें चलने लगीं थीं जो पहले दो-तीन ही चलती थीं। यहां भी गांव के कुछ तांगे खड़े रहते थे, जो बस से उतरने वाली सवारियों के गांव ले जाते थे। मैं भी उन्हीं तांगों से गांव जाने लगा। शाह मोहम्मद इस दौरान मेरी आंखों से दूर रहा और दो साल और बीत गए। अगली बार गांव गया तो बसंत का मौसम था। पेड़ों की शाख़ों पर हरी-हरी कोंपलें लहलहा रही थीं। इस बार दिल में यह चाहत जागी कि क्यों न आज शाह मोहम्मद के साथ सफ़र किया जाए। मैं अपने शहर से गांव जाने के लिए सीधा तांगों के अड्डे की ओर चला गया लेकिन अड्डे पर पहुंचते ही मुझे एक धक्का सा लगा, वहां चार-छह तांगों के अलावा सारे रिक्शे थे और शोर इतना कि कानों पड़ी आवाज़ भी सुनाई नहीं देती थी। फटे साइलेंसरों और गड़गड़ाते इंजनों के कारण अड्डे की छत उड़ी जाती थी। इस बेहंगम जीव के सामने घोड़े सहमे हुए थे। हर चीज़ बदल रही थी। यह देख कर दिल बैठ सा गया। कुछ देर बदहवास खड़ा रहा, फिर हिम्मत जुटा के आगे बढ़ा, मुझे विश्वास था कि अभी शाह मोहम्मद यहां होगा।

मैं अड्डे का सर्वेक्षण करने लगा कि कुछ ही पल में शाह मोहम्मद के तांगे पर नज़र पड़ी जिसकी एक-एक पतरी मुझे याद थी। उसकी हालत काफ़ी ख़राब हो चुकी थी। फिर भी पहचानने में दिक्कत नहीं हुई, लेकिन घोड़ा वह नहीं था। तांगे को देखकर एक अजीब सी ख़ुशी हुई। मैं सीधे उस होटल की ओर बढ़ा जहां मेरे विचार से उसे होना चाहिए था। मेरे घुसते ही शाह मोहम्मद की नज़र मुझ पर पड़ गई और वह एकदम उठकर मुझसे लिपट गया। ज़ोर-शोर से गले मिलने लगा जैसे बरसों का बिछड़ा साथी हो।

भतीजे दूर ही निकल गए हो, क्या समझ लिया था, शाह मोहम्मद मर गया। मान लिया शहरी बाबू बन गए हो पर बंदा हाल-चाल ही पूछने को आ जाए, आदमी को अपने ज़िंदा होने का एहसास रहता है। हम भी बड़े-बड़े शहरों में रहे हैं पर तू तो पुत्तर मुंह दिखाने से भी गया। कई बार सुना कि तू गांव आया और बिना मिले ही चला गया। मैं सोचता था कि भतीजा ऐसा तो नहीं फिर न जाने क्या बात है।

शाह मोहम्मद बोल रहा था और मैं शर्म से पानी पानी हो रहा था। मैंने जान छुड़ाने के लिए कहा, चाचा बाक़ी बातें बाद में कर लेना और जो चाहे कह लेना पहले बाहर निकल के घोड़े का साज़ कस ताकि गांव चलें। गिले-शिकवे तांगे में करेंगे।

चाय तो पी ले, शाह मोहम्मद ने चाय वाले को ललकारा, भाई एक कड़क दूध-पत्ती बना दे, आज बहुत ज़माने के बाद भतीजा अड्डे पर आया है।

नहीं, चाय तुझे पता है, मैं नहीं पीता, मैंने मना करते हुए कहा।

ओ बैठ जा पुत्तर, शाह मोहम्मद ने उस मलगज्जी रोशनी में मुझे ज़बरदस्ती बेंच पर बिठाते हुए होटल वाले को दोबारा ललकारा।

होटल की हालत देखकर मुझे डर हुआ, कहीं इसे भी गिरा कर बराबर न कर दिया जाए, और सब छोटी होटलों को गिरा कर प्लाज़ा खड़ा कर दिया जाए, जिसमें चाय की जगह कोल्डड्रिंक्स और पिज़्ज़ा बिकने लगे और इस कच्ची-पक्की धुएं वाली दीवारों पर धार्मिक और फ़िल्मी पोस्टरों की जगह पैना फ़्लेक्स ले लें। यह विचार आते ही मेरा सिर चकराने लगा। जल्द ही चाय की प्याली देखकर उसमें से चुस्की ली और सारे विचारों को एकदम से झटक दिया।

अड्डे से निकलते ही शाह मोहम्मद ने दोबारा शिकायतें शुरू कर दीं जिन्हें मैं कुछ देर सुनता रहा आख़िर बोला, चाचा दुनिया के धंधों में वक़्त की ख़बर ही नहीं होती। बहुत बार आपकी ओर आने का इरादा किया लेकिन समय नहीं मिला। आज सोचा, चाहे कुछ हो जाए चाचा शाह मोहम्मद के साथ ही जाऊंगा। ख़ैर, तांगे की बताएं, कैसा चल रहा है। मैं तो अड्डे की हालत देख कर परेशान सा हो गया हूं।

बेटे क्या पूछते हो अड्डे का, शाह का स्वर अचानक दुखी हो गया। ख़ुदा ग़ारत करे इन फटफटियों को। अड्डा तो एक तरफ़, इन्होंने सारे शहर का नास कर दिया है। अल्लाह जाने किस शैतान ने पहले पहल स्कूटर के पीछे लोहे का पीपा बांधकर इस चुड़ैल को बनाया था। अब जिधर देखो यह शैतानी डिब्बा दरदराता फिरता है। इसके कारण क़सम लेलो, मेरे कान अब बिलकुल बहरे हो गए हैं, कुछ सुनाई नहीं देता। तेल और धुएं की गंध एक ओर, तिली और कलेजे पर भी कालिख की परत जम गई है। इनके कारण पूरे शहर पर वो जो काली देवी के बारे में सुनते थे, उसका साया फिर गया है। सफ़ाई और सुकून तो ग़ारत हुआ सो हुआ, जान का ख़तरा अलग से है।

जान का इसमें क्या ख़तरा है, मैंने शाह मोहम्मद को और भी हिला दिया।

लो भाई, तुम जैसे अनजाने हो, शाह मोहम्मद अबकी मज़ा लेते हुए बात शुरू की। रोज़ इनके एक्सीडेंट होते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बंदा अच्छा-भला घर से निकला, मिला अस्पताल में। वजह पूछो तो स्कूटर रिक्शे का नाम लेकर चुप हो जाता है। अभी जाके देखो बड़े अस्पताल में आधे इसी काल के मारे पड़े हैं। सरकार के पास पट्टियों की कमी हो गई और हड्डी जोड़ डॉक्टरों की चांदी हो गई।

इतने एक्सीडेंट कैसे होते हैं, मैंने शाह मोहम्मद की बात को हंसी में उड़ाना चाहा।

शाह मोहम्मद अब पूरे मज़ाक़ उड़ाने के भाव से बोला, वजह इसकी यह है कि जिसको ढंग से साइकिल चलाने नहीं आती, उसी ने यह बीमारी ख़रीदी और लगा सवारियों की क़िस्मत जलाने। किसी की टायर खुल गई किसी की ज़ंजीर टूटी और आ पड़ा सड़क के बीच बिखर के। भई कई बार तो अल्लाह माफ़ करे, देख कर मज़ा ही आ जाता है। इस तरह लुढ़कते हैं जैसे उठी हुई अर्थी गिर पड़े। कई बार तो इन एक्सीडेंट के कारण मेरा घोड़ा बिदक गया। अब तो कमबख़्त स्कूल से भागे हुए बारह तेरह साल के छोकरों ने भी, जिनके अभी मुंह चटाने के दिन हैं, फटफटिए लिए फिरते हैं। एक दिन वो थे जब हम लाहौर में होते थे और हमारे पास होंडा स्कूटर था, जिसे जहाज़ से शर्त लगा कर चलाते थे तो दस-दस कारों से ऊपर निकाल कर ले जाते थे। ऐसे जैसे हवाई मिसाइल उड़ता जा रहा हो।

शाह मोहम्मद ने पुरानी आदत के तौर पर कहानी का पहलू निकाल ही लिया।

वो कैसे? मैंने जिज्ञासा दिखाई।

तांगा अब सड़क से निकल कर खुली सड़क पर दौड़ रहा था। शाह मोहम्मद ने घोड़े को एक छांटा दिखाया और बात शुरू कर दी। एक दिन मैं स्कूटर पर ही था। स्कूटर भी नया निकोर, ज़ीरो मीटर था। बस हाथ के इशारे से उड़ता था। मैं तेज़ी से जा रहा था कि सामने से 10-12 लड़के स्कूटर दौड़ाते आए और अगले पहिए हवा में उठाते हुए ज़ना-ज़न करके पास से निकल गए। मुझे लगा कि लड़के मुझे छेड़ के निकले हैं। बस उसी पर मेरा भी मीटर घूम गया, और मैंने कहा, ले भई शाह मोहम्मद तू भी दिखा दे इन को अपने जलवे। मैंने उसी वक़्त स्कूटर मोड़ा और पल भर में उनको पा लिया और ललकारा, लो भई अगर तुम अपने बाप की संतान हो तो मेरे बराबर आओ। फिर उसी वक़्त रेस लग गई और स्कूटर हवा से खेलने लगे। हंसते हुए, हरामी वह भी पूरे दिनों के थे।मुझे इधर-उधर से कट मारने लगे।कोई आगे से कोई पीछे से। वे तो चाहते थे अपने अपमान का बदला लें। इधर मैं भी उनसे बचता हुआ तेज़ी से कटें मारता जाता था।बस यह समझो हम उस वक़्त यमराज के चाचा बने हुए थे। राहगीर की क्या हैसियत, हमारे आगे बैल आ जाता तो वह भी मारा जाता। इस शैतानी दौड़ की वजह से एक ही बार में पूरे फिरोज़पुर रोड की ट्रैफ़िक किनारे लग गई और लोग डरे-सहमे फ़ुटपाथों पर चढ़ गए, कुछ तो दीवारों से लग गए।

मुझे उनकी हालत पर हंसी आ रही थी, मैं कभी अगला पहिया हवा में उठा देता और कभी पिछला पहिया उठा कर दौड़ता, जैसे मदारी का कोई खेल हो। इसी भागमभाग में अचानक मुस्लिम टाउन की नहर आ गई। अब ख़ुदा की कुदरत, उसका पुल बन रहा था जिसके कारण वहां कई मशीनें और मज़दूर सड़क रोके खड़े थे। मज़दूर तो हमें देखकर भाग निकले, परमशीनें किधर जातीं? उन्हें देखकर सब लड़कों ने अपने स्कूटर रोक लिए लेकिन मैंने दिल में कहा, शाह मोहम्मद तेरा यहां रुकना तेरा अपमान है। बस फिर मैंने एक बारगी स्कूटर को दाहिने हाथ की ओर फेरकर जो रेस दबाई,स्कूटर नहर के ऊपर से उड़ता हुआ निकल गया।उड़ते हुए हाथ हिलाकर मैं उन्हें इशारा करता गया कि बेटा अब आओ अगर तुम में हिम्मत है। बस मैं निकल गया और वे बेचारे अपना मुंह छिपाकर वहीं रह गए,और अब एक यह रिक्शे वाले हैं जो गधी रेहड़ी चलाने के लायक़ भी नहीं है लेकिन मेरे घोड़े को बिदकाने से बाज़ नहीं आते। बस मियां, कयामत के दिन क़रीब आ गए।

अगर उनके उतने हादसे होते हैं तो सवारियां उनके साथ बैठती क्यों हैं? मैंने पूछा।

मियां नए ज़माने को बुद्धि होती तो यह स्कूटर के पीछे डिब्बा बांधती? शाह मोहम्मद ने कहा, भाई अगर जापान वाले आकर देखें कि इन लफ़ंगों ने उनके स्कूटरों का क्या हाल कर दिया है तो ख़ुदा की क़सम उन को ज़रूर अदालत में घसीटेंगे और उमर क़ैद के साथ जुर्माना भी कराएंगे। अब बताओ,यह कोई न्याय है? जो चीज़ एक बंदे के लिए बनाई गई थी उसपर बीस चढ़ा दो।बस इस देश की हवा ही उल्टी है और लोग बस घास खाते हैं जिसकी वजह से उनके दिमाग़ में गोबर जमा हो गया है।

ये तो चाचा बड़ी ख़तरनाक बात है। क्या तुम सब कोचवानों ने विरोध नहीं कि या इन रिक्शा वालों के ख़िलाफ़? मैंने चिंता जताई, ऐसा न हो कल को ये सारे अड्डे पर ही क़ाबिज़ हो जाएं। उन्हें चाहिए था कि अपनी फट-फटियों के लिए किसी दूसरी जगह अड्डा बनाते।

लो, जवान कैसी बातें करते हो? अव्वल तो कई कोचवानों ने घोड़े बेचकर यही ख़रीद लिए।अब वह अपना ही विरोध कैसे करें, दूसरे, जोर ही सुहागन उसी का पांव भारी। सवारियां अब तांगों की ओर मुंहफेर कर भी नहीं देखतीं।जिसके कारण हमारा ज़ोर टूटता जा रहा है और हालत यह हो गई कि हफ़्ता पहले कमेटी वालों ने कोचवानों को उल्टा दो महीने का नोटिस भेज दिया है कि तांगे अड्डे में अधिक स्थान घेरते हैं और लीद की गंध भी आती है। अड्डा रिक्शों को अलॉट कर दिया गया है इसलिए अपना ठिकाना ढूंढ़ लो। घोड़ों के पानी का हौज़ छह महीने हुए पाट दिया था।अब यहां तांगेवाले तो छह आठ ही रह गए। हम इस नोटिस को लेकर डिप्टी कमिश्नर साहब के पास गए थे लेकिन उन्होंने साफ़ हाथ धोकर जवाब दिया, कहा, मैं कमिटी के काम में हस्तक्षेप नहीं करता। अब कोई पूछे तू दख़ल नहीं देगा तो तेरी अम्मा दख़ल देगी,जिसने तुझे जनकर हमारी क़िस्मत में लिख दिया।

फिर? मैंने पूछा।

फिर हम अल्लाह को सौंपकर आ गए और अल्लाह को सौंपे हुए काम का जो हाल होता है, वह तुम्हें पता ही है।

तो अब क्या होगा? मैंने अफ़सोस जताते हुए पूछा।

होना क्या है, मैंने तो सोचा है, अब मैं दो महीने के बाद तांगा शहर लाने के बजाए, बत्तीमोड़, पर ही चलाऊंगा।वहां अभी तांगों का राज है।

लेकिन वहां भी तो दो स्कूटर रिक्शे आ गए हैं, मैंने कहा।

आ तो गए हैं, लेकिन देखी जाएगी, शाह मोहम्मद ने मानो एक समाधान निकाल लिया था।

उसके बाद फिर मैं लाहौर आ गया और तीन चार महीनों के बाद गांव जाने लगा।इस दौरान हर बार शाह मोहम्मद से मेरी मुलाक़ात हो जाती, वह अपना तांगा शहर से उठाकर बत्ती मोड़ अड्डे पर ले आया था। इस अड्डे पर कमाई कम थी लेकिन शाह मुहम्मद को फिर भी सवारियां मिल जातीं और दो साल तक हालात अमन-चैन से रहे। लेकिन कब तक? धीरे-धीरे यहां भी स्कूटर रिक्शों का चलन आम हो गया और शाह मोहम्मद का तांगा बेकार रहने लगा।मैं जब भी गांव जाता उसी का तांगा आरक्षित करा लेता लेकिन मेरे अकेले से क्या कमाई होती।दो साल इस तरह निकल गए।फिर जो एक दिनमें, बत्ती मोड़ पहुंचा तो देखा, शाह मोहम्मद भी एक रिक्शे पर बैठा सवारियों का इंतज़ार कर रहा था। मैं देखकर दंग रह गया और कुछ सुकून भी हुआ किचलो अच्छा हुआ उसे सवारियां तो मिल ही जाया करेंगी। सीधा उसी के रिक्शे की ओर बढ़ा। उसने भी मुझे देख स्कूटर रिक्शा स्टार्ट कर दिया। एक दो रिक्शे वालों ने मुझे टोका भी, भाईजान हमारे साथ आ जाएं, उसे रिक्शा चलाना नहीं आता। लेकिन मैं उन्हें अनदेखा करके शाह मोहम्मद के रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शा चल पड़ा।

शाह मोहम्मद का दिल बातें करने को बहुत करता था मगर रिक्शे का शोर इतना था कि हमें न चाहते हुए भी चुपचाप ही सफ़र करना पड़ा। इस यात्रा में मैंने भी यह अंदाज़ा लगा लिया कि रिक्शे वाले ठीक ही कहते थे। शाह मोहम्मद के हाथों से रिक्शा एक तरफ़ निकल निकल जाता और कई बार सड़क से गहरी खड्ड में गिरते गिरते बचा।पूरे रास्ते दुआएं पढ़ता रहा और दिल में आगे के लिए उसके साथ बैठने से तौबा कर ली।

इसके बाद मैंने सुना कि उसका रिक्शा दो महीने के दौरान ही पूरा हो गया। इतने हादसे हुए कि पहिए, गरारियां, चेन, हैंडल यानी कि सब का सत्यानाश हो गया। इस अवधि में कई सवारियां भी बिदक गईं, उन्होंने जल्द ही शाह मोहम्मद के रिक्शे पर बैठने से तौबा कर ली। वैसे भी यह स्कूटर रिक्शा किसी काम का नहीं रह गया था और ना ही अब उसकी उम्र स्कूटर रिक्शा चलाने की थी।अगली बार गांव आया तो शाह मोहम्मद गांव में घुसते ही जो पहला होटल पड़ता है, वहां बैठा चाय पी रहा था।

मैं कुछ देर के लिए उसके पास बैठ गया। मुझे लगा कि वह बहुत बूढ़ा हो गया है। उम्र तो कुछ साठ से थोड़ी ऊपर थी लेकिन इतना कमज़ोर पहले कभी नहीं लगता था।रंग पीला और आंखें अंदर को धंसी हुई, चाय का कप उठाते हुए हाथ भी कांप रहे थे। विश्वास नहीं आ रहा था कि यह वही शाह मोहम्मद है जो कुछ समय पहले हट्टा-कट्टा और जीवन से भरपूर था।ऐसी गिरी हुई सेहत देखकर मैंने पूछा, चाचा शाह मोहम्मद आपकी सेहत को क्या हो गया?

शाह मोहम्मद चाय के कप से नज़रें हटाते हुए बोला, मुझे पता था तू यही पूछेगा पर कुछ बातों का जवाब न भी दिया जाए, तो यार बेली समझ लेते हैं।

फिर भी कुछ तो पता चले, टोह लेते हुए फिर से पूछ लिया।

भतीजे छोड़ इन बातों को, शाह मुहम्मद एक ठंडी आह लेकर बोला, हमारे रोग तेरी समझ में नहीं आ सकते। सेहत तो उसी दिन ख़राब हो गई थी जिस दिन मैं घोड़ा बेचकर लोहे का दुष्ट फट-फटिया ख़रीदा था। वह तो ख़ैर हुई तांगे का कोई ख़रीदने वाला नहीं था। अगर यह निशानी भी बिक जाती तो शाह मोहम्मद इतनी देर न चलता। ख़ैर तू अपनी सुना तेरा नौकरी धंधा तो ठीक चल रहा है?

जब रिक्शा ले ही लिया था तो बेचा क्यों? अच्छी भली रोज़ी-रोटी चल रही थी, मैंने दोबारा पूछा।

कहने लगा, बेटे क्या बोलूं, तुझे तो पता है सारी उम्र ठाठ से रहे। तांगे पर बैठा था तो उसका साढ़े पांच फुट का पहिया ज़मीन से इतना ऊंचा होता कि पैदल चलने वाल लोग छोटे-छोटे लगते। तांगे के बंबू पर बैठते ही क़द बढ़ जाता। तांगा नवाबों की सवारी और इज़्ज़त की निशानी है। लोगों के आग्रह पर मैंने स्कूटर रिक्शा ख़रीद तो लिया लेकिन जब डेढ़ फुट के पहियों वाली फटफटिया पर बैठता तो ऐसे लगता ज़मीन के साथ घिसटता जा रहा हूं।शर्म के मारे ज़मीन में ही गड़ जाता और सोचता, शाह मोहम्मद ऐसी रोज़ी से तो मौत ही अच्छी है। अंत में उसे औने-पौने बेचकर इस अपमान पर लानत भेजी।

मुझे शाह मोहम्मद की बात पर हंसी आई लेकिन संयम से काम लेकर उसे दबा गया। सच तो यह था कि अब उसकी उम्र रिक्शा चलाने की रही नहीं थी और न जीवन भर उसने उन चीज़ों को छुआ था मगर शाह मुहम्मद का यह बहाना मुझे अच्छा लगा। धीरे से कुछ पैसे निकालकर शाह मोहम्मद के ना-नाकरते उसकी जेब में डाल दिए और घर चला आया। यह मेरी उससे अंतिम मुलाक़ात थी। उसके बाद कुछ समय के लिए देश से बाहर चला गया और जब आया, वह दुनिया से जा चुका था।

गांव में दाखिल होने के बाद मेरे पांव खुद ब खुद उसके घर की ओर उठ गए और जल्द ही वहां जा खड़ा हुआ। आज उसे मरे हुए पंद्रह साल हो चुके हैं। मैं उसके ज़मीन से बराबर हुए कच्चे घर के सामने सूखे बबूल के तने से लगे इस तांगे को देख रहा हूं। जिसके बंबू आधे रह गए हैं,पहियों को दीमक खा चुकी है और वह टूट-फूटकर ज़मीन में धंस गए हैं। सीटें और लकड़ी की तख़्तियां कोई निकाल ले गया है। वह तांगा अब एक ऐसा फटेहाल ढांचा है जिसका न कोई कोचवान मौजूद है और न उसे खींचने वाला घोड़ा।

मैंने आंखें बंद कर लीं, स्कूल से निकलकर सीधा अड्डे की तरफ़ भागा और शाह मोहम्मद के तांगे पर चढ़कर बैठ गया।थोड़ी देर बाद शाह मोहम्मद ने घोड़े को चाबुक लगाई, तांगे को गांव जाने वाली सड़क पर चढ़ाया और एक नई कहानी शुरू कर दी। 


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